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अहोई अष्टमी व्रत, यहां पढ़ें उसका इतिहास और महत्व

अहोई अष्टमी हिंदू संस्कृति में विधिविधान से मनाया जाने वाला त्योहार है। परंपरागत रूप से अहोई अष्टमी पर, माताएं अपने पुत्रों की भलाई के लिए सुबह से शाम तक उपवास करती हैं। इस व्रत को लेकर कहा यह भी कहा जाता है कि संतान की चाहत रखने वाली महिलाएं अगर विधिवत अहोई अष्टमी की पूजा करती हैं तो उनकी इच्छा पूरी होती है। इस दिन को अहोई आठ के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि अहोई अष्टमी का उपवास अष्टमी तिथि के दौरान किया जाता है जो कार्तिक महीने का आठवां दिन होता है। अहोई अष्टमी व्रत का दिन दिवाली से लगभग आठ दिन पहले पड़ता है।

अहोई अष्टमी का इतिहास
इस पूजा का एक लंबा इतिहास है और कहा जाता है कि कार्तिक के महीने में एक महिला पास के जंगल में मिट्टी लेने के लिए गई। जब वह मिट्टी खोद रही थी तभी गलती से कुल्हाड़ी सोते हुए शेर के बच्चे पर गिर गई और उसकी माैत हो गई है। उसके बाद महिला के सात बेटे एक-एक करके मरने लगे और साल के अंत तक, उसने उन सभी को खो दिया। उसके बाद ग्रामीणों ने उन्हें सलाह दी कि वे अहोई अष्टमी भगवती के सिंह शावक का चेहरा बनाकर उसकी पूजा करें। ऐसा उसने लगातार सात साल तक किया और देवी की कृपा से उसके सात पुत्रों में जान आ गई।

अहोई अष्टमी पूजा का महत्व
इस दिन, महिलाएं एक दिन का उपवास रखती हैं। महिलाएं सूर्योदय से पहले उठती हैं, और स्नानादि के बाद, उनके पास कुछ सरगी होती है जिसे मंदिर में पूजा करने से पहले जलपान के रूप में ग्रहण करती हैं। इस दाैरान वे एक ‘संकल्प’ लेती हैं कि उन्हें अपने बच्चों की भलाई के लिए बिना पानी पिए या बिना खाना खाए उपवास रखना है। फिर वे अपना उपवास तब तक रखती हैं जब तक कि शाम को तारे दिखाई न दें। शाम को, महिलाएं पूजा की तैयारी करती हैं और वे एक साफ दीवार पर अहोई मां या अहोई भगवती का चित्र बनाती हैं। हालांकि यदि वे इसे नहीं बनाती हैं तो वे देवी का एक पोस्टर भी चिपका सकती हैं। इस दिन विभिन्न प्रकार का भोजन बनाया जाता है।

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