क्या है पिठौरा भीलों की चित्र परम्परा, क्यों लुप्त हो रही है ये मध्य प्रदेश से
भोपाल: पिठौरा भीलों की चित्र परम्परा का सबसे सुंदर उदाहरण है. भील समुदाय प्रकृति के अस्तित्त्व में विश्वास करता है. वे पेड़-पौधों आदि सृष्टि की प्रत्येक वस्तु में किसी न किसी शक्ति अथवा देवता का वास मानते हैं, जिससे सारी सृष्टि और जीवन संचालित होता है. भजन उसी शक्ति की पूजा का उपक्रम करते हैं, जिसे पिठौरा बापदेव’ कहते हैं. दिवाल पर वर्ष में एक बार चित्र बनाकर उसका अनुष्ठान समारोह पूर्वक करते हैं, जिसमें पूरा समाज इकट्ठा होता. पिठौरा पूजन देवी-देवताओं के आव्हान और पूजा का सबसे पवित्र और प्रमुख अवसर होता है. पिठौरा पर्व एक आदिम अनुष्ठान है, जो आदिम आस्था की अपूर्व गाथा बनकर उतरती है, जिसे भीलों ने अपनी चित्र परम्परा में स्वर और शब्द के माध्यम से सदियों-सदियों से संभाल कर रखा है, जो चित्र और शब्द की अनुपम युति कही जा सकती है. वह भीली चेतना का सबसे उजला चित्रित पृष्ठ है और है आदिम गाथाओं को जगाने का सबसे पावन अवसर. जहाँ पिठौरा के घोड़े आकाश में उड़ते हैं, बातें करते हैं, धरती से स्वर्ग तक जाते हैं. देवी-देवताओं को धरती पर लाते हैं .
ढाँक पर बड़वे पिथौरा या पिठौरा बापूजी और काजलराणी की गाथा जगाते हैं. काजलराणी सबका कल्याण करने वाली है. ढाँक की रहस्यमयी गूंजती ध्वनियाँ जैसे देव-आत्माओं से संवाद करती हैं, जैसे उनकी प्रार्थना करुणा में बदल जाती है. पिथौरा कथा के माध्यम जैसे भीलजन अपनी जातीय स्मृतियों को एक बार फिर जगाने की कोशिश करते हैं. भीलों का पिठौरा भित्तिचित्र उनकी सम्पूर्ण संस्कृति और चित्रकर्म का अपने आप में एक मिथकीय दस्तावेज है.
पिठौरा परम्परा
पिठौरा परम्परा को जानने से पहले यहाँ भीलों के बारे में संक्षेप में जान लेना जरूरी है. झाबुआ मध्यप्रदेश का एक आदिवासी पश्चिमांचल है, जो राजस्थान और गुजरात की सरहदों से लगा हुआ है. झाबुआ से लगे हुए धार, बड़वानी और पश्चिम निमाड़ जिलों में भी भीलों का निवास है. यह कहना उपयुक्त होगा कि पश्चिमांचल देश की तीसरी सबसे बड़ी जनजाति भील की पहचान रखने वाला क्षेत्र है. समूचे झाबुआ में भीलों का ही निवास है. झाबुआ अपने आपमें बहुत बड़ा क्षेत्र है.
धार-झाबुआ में भीलों का प्रतिशत सर्वाधिक 85 प्रतिशत है. झाबुआ-राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र की सीमाओं से एक तरफ से घिरा हुआ है, दूसरी तरफ बड़वानी, धार और पश्चिम निमाड़ जिले की सीमाएँ भी उसे घेरती हैं. रतलाम, मन्दसौर और नीमच मध्यप्रदेश के हिस्से हैं, लेकिन ये जिले भी भीली संस्कृति के रूप में पहचाने जाते हैं.
पिठौरा चित्रों में स्थानीयता का प्रभाव सबसे ज्यादा है. एक ही जिले के सभी पिठौरा चित्र एक समान हों, यह आवश्यक नहीं है. उनका रूप विधान, बनी हुई आकृतियों का विन्यास, उनके चरित्र तथा उनकी संख्या गाँव से गाँव बदल जाती है. धार जिले से जैसे-जैसे हम गुजरात की ओर बढ़ते जाते हैं – चित्रों में विवरणात्मकता तथा रंगों की चमक और अलंकरण बढ़ता जाता है. यही अन्तर भील और भिलाला अथवा राठवों में बनाये जाने वाले पिठौरा चित्रों में दीखता है. भील पिठौरा अपनी संरचना तथा सादगी में अधिक पुरातन प्रतीत होते हैं, जबकि भिलाला एवं राठवा चित्र ज्यादा विवरणात्मक एवं होते हैं.
झाबुआ के भाबरा गाँव कट्ठीवाड़ा क्षेत्र तक जाते-जाते तो चित्रित किये गये घोड़ों का स्वरूप तथा उनकी चारित्रिक विशेषताएँ ही बदल जाती हैं. भीली क्षेत्र के भगोर इलाके के पिठौरा में चित्रित घोड़े आमने-सामने खड़े बनाये जाते हैं, जबकि राठवा इलाके में यह घोड़े एक दूसरे के पीछे कतारबद्ध चित्रित किये जाते हैं. घोड़ों की संख्या भी चित्रण के लिए उपलब्ध स्थान अनुसार बदल जाती है. पिठौरा पूजा किस प्रकार आरम्भ हुई, इस सम्बन्ध में अधिकांश भील और भिलाला चुप रह जाते हैं. वे सम्बन्धित किंवदन्तियाँ और मिथक या तो भूल चुके हैं या उनकी बहुत धुंधली याद अब उनके पास बची है. गुजरात के राठवा अब भी अपनी मिथक परम्परा को गीतों के रूप में बचाये हुए हैं, परन्तु मध्यप्रदेश भीलों में इनके अनेक अवशेष विभिन्न परिवर्तनों के साथ खण्ड-खण्ड रूप मिलते हैं. जैसे इन्दी राजा और पिठौरा कुँवर आपस में मामा-भानजा हैं, भाबरा गाँव और आसपास के क्षेत्रों में उन्हें भाई-भाई माना जाता कट्ठीवाड़ा वे मामा-भानजा हैं.