आदिवासी और भगवान राम, जानें क्या था संबंध
भगवान राम अपने वनवास के दौरान लगभग 10 वर्ष तक दंडकारण्य क्षेत्र में आदिवासियों के बीच रहे थे. केवट प्रसंग, जटायु प्रसंग, शबरी प्रसंग, हनुमान और सुग्रीव मिलन यह सभी उस दौर के दलित या आदिवासी लोग ही थे. दंडकारण्य क्षेत्र में आदिवासियों की बहुलता थी. यहां के आदिवासियों को बाणासुर के अत्याचार से मुक्त कराने के बाद प्रभु श्रीराम 10 वर्षों तक आदिवासियों के बीच ही रहे थे. दंडकारण्य में छत्तीसगढ़, ओडिशा एवं आंध्रप्रदेश राज्यों के हिस्से शामिल हैं. इस संपूर्ण क्षेत्र के आदिवासियों में राम और हनुमान को सबसे ज्यादा पूजनीय इसीलिए माना जाता है.
राम ने ही सर्वप्रथम देश के सभी आदिवासी और दलितों को संगठित करने का कार्य किया और उनको जीवन जीने की शिक्षा दी और सभी को मुख्यधारा से जोड़ने का कार्य किया. यदि आप निषाद, वानर, मतंग, किरात और रीछ समाज की बात करेंगे तो ये उस काल के दलित या आदिवासी समाज के लोग ही हुआ करते थे. आज उममें से कई ऐसे समाज है जो श्रेष्ठता के क्रम में ऊपर जाकर छत्रिय या ब्राह्मण हो गए है. जैसे वाल्मीकिजी कभी एक डाकू हुआ करते थे और वे भील जाति के लोगों के बीच पले बड़े हुए थे. उन्होंने ही रामायण लिखी थी. कुछ उन्हें कोली आदिवासी समाज का मानते हैं. हनुमानजी के गुरु मतंग ऋषि आज की जातिगत व्यवस्था अनुसार तो दलित ही कहलाएंगे?
वर्तमान में आदिवासियों, वनवासियों और दलितों के बीच जो धार्मिक और सांस्कृतिक परंपरा, रीति और रिवाज हैं, वे सभी प्रभु श्रीराम की ही देन हैं. भगवान राम भी वनवासी ही थे. उन्होंने वन में रहकर संपूर्ण वनवासी समाज को एक-दूसरे से जोड़ा और उनको सभ्य एवं धार्मिक तरीके से रहना सिखाया. बदले में प्रभु श्रीराम को जो प्यार मिला, वह सर्वविदित है.
वन में रहकर उन्होंने वनवासी और आदिवासियों को धनुष एवं बाण बनाना सिखाया, तन पर कपड़े पहनना सिखाया, गुफाओं का उपयोग रहने के लिए कैसे करें, ये बताया और धर्म के मार्ग पर चलकर अपने रीति-रिवाज कैसे संपन्न करें, यह भी बताया. उन्होंने आदिवासियों के बीच परिवार की धारणा का भी विकास किया और एक-दूसरे का सम्मान करना भी सिखाया. उन्हीं के कारण हमारे देश में आदिवासियों के कबीले नहीं, समुदाय होते हैं. उन्हीं के कारण ही देशभर के आदिवासियों के रीति-रिवाजों में समानता पाई जाती है.