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बिना कुछ खाये अशोकवाटिका में कैसे जीवित रहीं सीता माता

माता सीता लंका में की अशोक वाटिका में बंदी के रूप में रहीं. इस लगभग एक वर्ष इस दौरान उन्होंने एक बार भी रावण द्वारा भेजा गया भोजन ग्रहण नहीं किया. उन्होंने प्रण क्या था कि वह रावण के द्वारा भेजा हुआ कुछ भी ग्रहण नहीं करेंगी. उन्होंने यह संकल्प लिया था कि वह निराहार रहकर प्राणों का त्याग कर देंगी. फिर वह बिना भोजन किये कैसे जीवित रहीं? आइए जानते हैं इसका इसका रहस्य.

क्या है दिव्य खीर का राज़

वाल्मीकि रामायण के अनुसार सीताजी के इस संकल्प को देखकर ब्रह्माजी बहुत चिन्तित हो गये. सीताजी के जीवन की रक्षा करना बहुत आवश्यक था. ब्रह्माजी ने देवराज इंद्र से कहा कि तुम शीघ्र ही लंकापुरी में जाकर उन्हें उत्तम खीर प्रदान करो. यह ऐसी दिव्य खीर थी, जिसे ग्रहण करने के बाद भूख-प्यास नहीं लगती थी. साथ ही तेज और बल भी कम नहीं होता था.

यह निर्देश पाकर इंद्र निद्रा को लेकर लंका में माता सीता के पास गये. निद्रा ने माता सीता की निगरानी में लगे राक्षसों और राक्षसियों को निद्रा में लीन कर दिया. इस बीच इंद्र अशोक वाटिका में माता सीता के पास गये और बोले- “ मैं देवराज इंद्र हूँ और परमपिता ब्रह्माजी के निर्देश पर आपके पास आया हूँ. मैं आपके उद्धार के लिए महात्मा श्री रघुनाथजी की सहायता करूंगा. वह सीताजी के लिए विशेष खीर लेकर गये थे. उन्होंने सीताजी से कहा कि इसका सेवन कर आपको कई वर्ष तक भूख-प्यास नहीं लगेगी.

विश्वास या मायानगरी

बहुत पुरानी कहावत है कि दूध का जला छाछ भी फूँक क्र पीता है. एक बार धोखा खाया व्यक्ति किसी पर सहज विश्वास नहीं कर पाता. सीताजी रावण के हाथों धोखा का चुकी थीं. उसने साधु का वेष धारण कर ही उन्हें छल से भरे वचन बोलकर लक्ष्मण रेखा पार करने पर विवश कर दिया था.

इसके अलावा, लंका एक ऎसी रहस्यमयी और माया नगरी थी कि वहाँ कुछ भी होना असंभव नहीं था. कोई भी दानव किसीका भी रूप ले लेता था. कोई भी कहीं भी जा सकता था. लिहाजा सीताजी द्वारा किसी पर सहज विश्वास करना कठिन था. उन्होंने कहा कि मुझे कैसे विश्वास हो कि आप ही देवराज इंद्र हैं? मैंने श्रीराम के साथ देवताओं के लक्षण अपनी आँखों से देखे हैं. देवताओं में कुछ विशिष्ट लक्षण होते हैं, जिनसे मैं अच्छी तरह परिचित हूँ. यदि आप इंद्र हैं तो उन लक्षणों को दिखाइए. तभी मुझे आपकी बात पर विश्वास हो पाएगा.

आपको याद होगा कि जब हनुमानजी अशोक वाटिका में गये और उन्होंने स्वयं का परिचय श्रीराम के भक्त और दूत के रूप में दिया, तब भी सीताजी ने उन पर सहज विश्वास नहीं किया था. जब हनुमानजी ने श्रीराम द्वारा निशानी के रूप में दी गयी अंगूठी उन्हें दिखाई तब उन्हें विश्वास हुआ. वह इस बात को जानती थीं कि किसी के भी द्वारा भगवान् श्रीराम की इस अंगूठी की नक़ल नहीं की जा सकती थी.

दिव्य शक्तियां

सीताजी द्वारा ऐसा कहे जाने पर इंद्र के पास कोई विकल्प नहीं था. उन्होंने वैसा ही किया. उन्होंने कहा कि देखिये मेरे पैर धरती का स्पर्श नहीं कर रहे. मैं धरती और आकाश के बीच पर निराधार खड़ा हूँ. सीताजी ने देखा कि इंद्र की आँखों की पलकें नहीं झपक रही थीं. इसके अलावा उनके वस्त्रों पर धूल का स्पर्श नहीं था. उनके गले में जो पुष्पमाला डली थी उसके फूल कुम्हलाये नहीं थे. ये लक्षण देवताओं में ही होते हैं.

इन लक्षणों को देखकर सीता माता को विश्वास हो गया कि यही इंद्र हैं. उन्होंने इंद्र द्वारा प्रदान की गयी खीर हाथ में लेकर मन ही मन प्रभु राम को निवेदित कर उसे ग्रहण किया. खीर को ग्रहण करते ही जानकीजी को भूख-प्यास के कष्ट से मुक्ति मिल गयी. इंद्र के मुख से श्रीराम और लक्षमण का समाचार पाकर वह बहुत प्रसन्न हुयीं. उन्हें पूरा विश्वास हो गया कि प्रभु श्रीराम उन्हें लंका से मुक्त कराने अवश्य आएँगे.

यहाँ हम यह भी बताते चलें कि महर्षि विश्वामित्र जब श्रीराम और लक्ष्मण को अपने यज्ञ की रक्षा के लिए वन ले गये थे तो उन्होंने भी श्रीराम को बला और अतिबला नाम की सिद्धियाँ प्रदान की थीं. इनके कारण वे बिना कुछ खाए भी पूरी तरह स्वस्थ रह सकते थे और उनके तेज-बल में कोई कमी नहीं आती थी.