कांग्रेस ने पहली बार नहीं की है राजनीति में महिलाओं के आरक्षण की बात, 2010 में राज्यसभा में पास हो गया था बिल
कहा जाता है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव राजनैतिक दलों से वो करवा देते हैं, जो पहले कभी न हुआ हो. वो तमाम वादे करते हैं. सरकार चुनावी वर्ष में तमाम घोषणाएं करती है. यहां होने वाली घोषणाएं देशभर की सरकारों व दलों पर प्रभाव डालती हैं. ऐसी ही कुछ हुआ मंगलवार को लखनऊ में हुई कांग्रेस की प्रेस कांफ्रेंस में. इस प्रेस कांफ्रेंस में कांग्रेस की महासचिव और उत्तर प्रदेश की प्रभारी प्रियंका गाँधी ने 2022 में होने वाले विधानसभा चुनावों में महिलाओं के लिए 40% टिकट देने की घोषणा कर दी. उन्होंने कहा कि कांग्रेस पार्टी 403 सीटों में से कम से कम 161 सीटों पर महिलाओं को उतारेगी. इस घोषणा के बाद बैकफुट पर चल रही कांग्रेस फ्रंटफुट पर आ गयी. प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने एक नारा भी दिया -‘लड़की हूँ, लड़ सकती हूँ’.
2017 में क्या थी महिलाओं के टिकट की स्तिथि
2017 के उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी ने समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था. उस दौरान कांग्रेस को अपने हिस्से में 403 सीटों में से 114 सीटें मिली थीं. तब कांग्रेस ने 11 महिलाओं को विधायकी का टिकट दिया था. प्रतिशत के हिसाब से यह लगभग 13 प्रतिशत होगा. इसमें सिर्फ 2 महिलाएं ही चुनाव जीतकर माननीय विधायका बन सकीं. वहीँ अगर अन्य दलों की बात करें तो बीजेपी ने 384 में से 43 महिलाओं और बसपा ने 19 और सपा ने 33 महिलाओं को अपना उम्मीदवार बनाकर चुनावी मैदान में उतरा था. 2017 में विधानसभा चुनाव जीतकर कुल 38 महिलाएं विधानसभा पहुंची थीं. जिनमें से 32 बीजेपी की बसपा से और कांग्रेस से 2 और सपा व अपना दल से 1-1 महिला विधानसभा पहुंची.
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इंदिरा गाँधी के समय सबसे पहले हुई थी महिला आरक्षण पर बात
साल 1975 में इंदिरा गाँधी की सरकार के दौरान एक ‘टूवर्ड्स इक्वैलिटी’ नाम की एक रिपोर्ट आई थी. जिसमें महिलाओं की स्तिथि को लेकर बात की गयी थी. जिसमें महिलाओं की ताजा स्तिथि के बारे में बताया था. उनके आरक्षण पर बात की गयी थी. उस कमेटी की रिपोर्ट को बनाने वालों में ज्यादातर महिलाओं को आरक्षण देने के खिलाफ थे. उसमें शामिल महिलाएं भी चाहती थीं कि वह आरक्षण की वजह से नहीं बल्कि अपने खुद के बल में राजनीति के उच्च स्तर पर पहुंचे. लेकिन वक्त के साथ-साथ उनका यह रवैया बदला. ऐसा इसलिए क्योंकि उन्हीं महिलाओं ने देखा कि उनके राजनीति में न आने के लिए तमाम रोड़े अटकाए जा रहे हैं. उन्हें सिर्फ घर की दहलीज तक ह रखने की कोशिस की जा रही है. जिसके बाद से महिलन आरक्षण की जरुरत महसूस होने लगी. जिसके बाद से कहा गया कि महिलाओं को संसद में एक न्यूनतम तय प्रतिनिधित्व दिया जाये.
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राजीव गाँधी ने की थी सबसे पहले कोशिश
कांग्रेस पार्टी की सरकार के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1980 के दशक में पंचायत और स्थानीय निकाय चुनाव में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण दिलाने के लिए विधेयक पारित करने की कोशिश की थी, लेकिन उस दौरान कई राज्यों की विधानसभाओं में इस प्रस्ताव का विरोध किया गया. जिसके पीछे तर्क दिया गया कि इससे उनकी शक्तियों का हनन होगा. इसके बाद यह प्रस्ताव ठंडे बसते में चला गया.
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जिसके बाद महिला आरक्षण विधेयक को एचडी देवेगौड़ा की सरकार ने पहली बार 12 सितंबर 1996 को पेश करने की कोशिश की थी. एचडी देवेगौड़ा की सरकार को उस वक्त कांग्रेस बहार से समर्थन कर रही थी. लेकिन यह सरकार मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव के कंधों पर चल रही थी. जोकि महिला आरक्षण के सबसे बड़े विरोधियों में से एक थे. मुलायम सिंह की सपा और लालू प्रसाद की आरजेडी ने इस विधेयक को पारित नहीं होने दिया.
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इसके कुछ समय बाद ही जून 1997 में एक बार फिर से महिला आरक्षण के विधेयक को पारित करने की कोशिश हुई. उस वक्त बिहार के बड़े समाजवादी नेताओं में से एक शरद यादव ने इस विधेयक की के खिलाफ जबरदस्त हंगामा किया और एक अत्यंत ही विवादित टिप्पणी कर दी. उन्होंने कहा कि “परकटी महिलाएं हमारी महिलाओं के बारे में क्या समझेंगी और वो की सोचेंगी.” जिसके बाद इस बार भी यह विधेयक ठंडे बसते में डाल दिया गया.
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एनडीए ने की थी तीन बार कोशिश
वर्ष 1998 में 12वीं लोकसभा का गठन हुआ. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी. इस सरकार में एन थंबीदुरई को क़ानून मंत्री का प्रभार मिला. उनसे कहा गया कि किसी भी तरह महिला आरक्षण से संबंधित बिल पास कराकर कानूनी अमलीजामा पहनाना है. लेकिन इस बार भी संसद में सरकार को कोशिश विफल रही. हालाँकि एनडीए की सरकार ज्यादा दिनों तक चली भी नहीं. जिसके बाद एनडीए की सरकार ने दोबारा 13वीं लोकसभा में 1999 में इस विधेयक को पेश करने की कोशिश की. इस बार भी पुरानी कहानी दोहराई गयी. 2003 में भी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने फिर कोशिश की लेकिन इस दौरान सदन में सांसदों ने ख़ूब हंगामा किया और इस विधेयक को पारित नहीं होने दिया.
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सोनिया गाँधी ने राज्यसभा में पारित करा लिया था महिला आरक्षण बिल
साल 2010 में यूपीए सरकार का दूसरा कार्यकाल था. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह थे. लेकिन ज्यादातर चली सोनिया गाँधी की ही थी. उस दौरान वह कांग्रेस व यू पीए की सर्वमान्य नेता थीं. इस गठबंधन में शामिल हर कोई नेता उनकी बात नहीं नकारता था. तब यह बिल पहले राज्यसभा में पेश किया गया. जिसे सोनिया ने पास कराने का फरमान जारी कर दिया था. इस दौरान पहली बार राज्यसभा में पहली बार मार्शल्स का इस्तेमाल किया गया. यह अपने आप में अभूतपूर्व था. अभी तक ऐसा कभी नहीं हुआ था. उस दिन इस बिल पर चर्चा हुई और यह बिल राज्यसभा में पास हो गया. हालाँकि ज्यादातर ऐसा होता है कि कोई भी बिल पहले लोकसभा ने लाया जाता है. लेकिन इस विधेयक को राज्यसभा में पास होने के बाद ज्यादा समयकाल तक जीवान्त रखने के लिए लाया गया.
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सरकार को उम्मीद थी कि जिस तरह से यह बिल राज्यसभा में पास हो गया है. उसी तरह यह लोकसभा में भी पास हो जायेगा. लेकिन सरकार की यह भूल थी. लोकसभा में विपक्ष के साथ सरकार को अपने घटक दलों के विरोध का सामना करना पड़ा था. सोनिया गाँधी व तत्कालीन यूपीए सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद भी यह बिल पास नहीं हो सका. 2014 में 15 वीं लोकसभा भंग हुई और यह बिल भी पुराने बिलों की तरह पास होकर कानून का रूप नहीं ले सका.
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अब जिस तरह से यूपी चुनावों से पहले कांग्रेस ने 40% आरक्षण का जो दांव चला है. उसके बाद से तमाम परिस्थितियां कांग्रेस के पक्ष में घूमती नजर आ रही हैं. साथ ही महिलाओं को लेकर कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश चुनावों में अन्य विरोधी दलों से बढ़त ले ली है. इससे इतना भी तय है कि इस फैसले के बाद एनी दल भी इसकी ओर अपना दृष्टिकोण साफ़ करेंगे. अगर अन्य सभी दल महिला आरक्षण को लेकर अपनी स्तिथि साफ़ नहीं करते तब कांग्रेस उन पर महिला विरोधी कहकर निशाने पर ले सकती है. इसके अलावा अगर कोई ऐसा करता भी है तो कांग्रेस उसे नकलची और दवाब में केवल चुनावी जुमला बताएगी. जिससे अब इस मुद्दे पर कांग्रेस के दोनों हाथों में लड्डू हैं.