आलिया बदली सी और बदले की हैं कहानी, सस्पेंस और थ्रिल के चक्कर में खो गई रेड चिलीज की रवानी
Movie Review
डार्लिंग्स
कलाकार
आलिया भट्ट , शेफाली शाह , विजय वर्मा , रोशन मैथ्यू , राजेश शर्मा और विजय मौर्य
लेखक
परवेज शेख , जसमीत के रीन और विजय मौर्या
निर्देशक
जसमीत के रीन
निर्माता
रेड चिलीज एंटरटेनमेंट और इटरनल सनशाइन प्रोडक्शंस
ओटीटी
नेटफ्लिक्स
रेटिंग
2/5
आलिया भट्ट के लिए साल 2022 उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण साल है। इसी साल उनकी शादी हुई। वह मां भी बनने वाली हैं और बतौर निर्माता उनकी पहली फिल्म ‘डार्लिंग्स’ भी नेटफ्लिक्स पर रिलीज हो गई। फिल्म बनी तो सिनेमाघरों के लिए ही थी लेकिन फिल्म बनने के बाद ही शायद इसे बनाने वालों को समझ आया कि इसके प्रचार और विज्ञापन पर और पैसा खर्च करने की बजाय इसे ओटीटी पर रिलीज कर देना ही बेहतर होगा। नेटफ्लिक्स वैसे भी अपने हिंदी सिनेमा पर शुरू से लट्टू रहा है तो उसने भी ऐसा पहला प्रस्ताव मिलते ही इसे लपक लिया। आलिया भट्ट फिल्म की हीरोइन भी हैं। अभिनय वह शानदार करती हैं, इसमें दो राय नहीं लेकिन अपनी फिल्मों की कहानियां चुनने की कला आलिया को अभी सीखनी शेष है। ‘कलंक’, ‘स्टूडेंट ऑफ द ईयर 2’, ‘सड़क 2’ और अब ‘डार्लिंग्स’। बीच में ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ और ‘आरआरआर’ भी वह कर चुकी हैं। फिल्मों की कामयाबी के मामले में अपने पति रणबीर कपूर से आगे चलती रहीं आलिया का यूं लगता है अब उनसे ही कंपटीशन है। रणबीर ने चार साल बाद ‘शमशेरा’ दी और आलिया ने भी आखिर उनकी बराबरी कर ही ली। किस मामले में, आइए जानते हैं!
रेड चिलीज की भटकती रवानी
नेटफ्लिक्स की ये परिपाटी रही है कि जब भी उनकी किसी फिल्म या वेब सीरीज के कलाकारों के साक्षात्कार की योजना बनती है, वह पहले फिल्म या सीरीज दिखाते हैं। लेकिन, फिल्म ‘डार्लिंग्स’ के मामले में ऐसा नहीं हुआ। वजह पूछने पर बताया गया कि ऐसा करने से फिल्म के अहम बिंदु सार्वजनिक हो जाने का खतरा था। अब फिल्म देखने के बाद समझ आता है कि ऐसा शायद फिल्म की गुणवत्ता के चलते किया गया। फिल्म ‘डार्लिंग्स’ के टीजर में आलिया भट्ट ने बिच्छू और मेंढक की एक कहानी सुनाई थी। सार ये था कि बुरी आदतें आसानी से इंसान को छोड़ती नहीं हैं। फिल्म को बनाने वाली मुख्य कंपनी रेड चिलीज एंटरटेनमेंट शाहरुख खान और उनकी पत्नी गौरी खान की कंपनी है। डिजिटल मनोरंजन की दुनिया के लिए विषय चुनने की इसकी आदतें भी छूटती नहीं दिख रहीं। सिर्फ एक ‘क्लास ऑफ 83’ को छोड़ दें तो इसकी रचनात्मक टीम बार बार एक सी गलतियां दोहराती दिख रही है। कागज पर बढ़िया दिखने वाली फिल्म या सीरीज ये लोग बनाते हैं, इसका आम दर्शकों से ताल्लुक कैसे बनेगा, ये सोचना भूल जाते हैं।
मियां, बीवी और सास की कहानी
फिल्म ‘डार्लिंग्स’ की कहानी ठेठ मुंबइया है। पुरानी मुंबई का कोई मुस्लिम बहुल इलाका है। सिनेमाघर के बाहर कुल्फी खाते खाते अपने आशिक का इंतजार करती माशूक है। लड़का रेलवे में टिकट कलेक्टर बन जाता है। लड़की उसकी बीवी। टीसी से उसका सीनियर रोज टॉयलेट साफ कराता है। और, वह करता भी है। सरकारी नौकरी में रहते हुए कोई अपना ऐसा उत्पीड़न आज के जमाने में भी होने दे सकता है, कहानी लिखने वालों की सोच पर तरस आता है। दफ्तर में भीगी बिल्ली बनकर रहने वाला ये मर्द घर में आकर शेर हो जाता है। रोज शराब पीता है। सोकर उठने पर शराब। घर के रास्ते में शराब। घर पहुंचने के बाद भी शराब। खाने में एक कंकड़ माफ है। दूसरा भी माफ है। लेकिन तीसरा कंकड़ निकलने पर वह बीवी का गला दबोच लेता है। इतना जोर से कि निशान अगले दिन तक मोहल्ले को दिखते रहते हैं। माशूक अब अपने शौहर की ‘डार्लिंग्स’ है और उसकी मां सामने वाले घर से सारा माजरा समझती रहती है।
कमजोर किरदारों सी जानी पहचानी
मां का एक ही मानना है कि उसकी बेटी को अपने शौहर से छुटकारा पा लेना चाहिए। घर में मारपीट बढ़ती है तो मामला पुलिस तक जाता है। पुलिस अपनी मुंबइया है। पहली बार तो मामला कागज पर ही निपटाती है लेकिन दूसरी बार सीधे शिकायत करने वाले के घर आ धमकती है। मामला इस बार थोड़ा पेचीदा है क्योंकि शौहर मिल नहीं रहा। मां-बेटी ने मिलकर जो प्लान बनाया है, उसके किसी भी वक्त खुल जाने का खतरा कहानी का सस्पेंस बनाता है। बीच में एक आशिक और है जिस पर शक बेटी से इश्क का होता है, निगाहें उसकी कहीं और टिकी मिलती हैं। आखिर तक आते आते मां के अतीत का सच भी सामने आता है। बेटी का मन बदल जाता है लेकिन ऐसी औसत सी हिंदी फिल्मों में कहानी खत्म होते होते हो वही जाता है जो फिल्म का मुख्य कलाकार चाहता है। मेंढक बच जाता है। बिच्छू अपनी गति को प्राप्त होता है।
नई बोतल की वही शराब पुरानी
‘फोर्स 2’, ‘फन्ने खां’ और ‘पति पत्नी और वो’ जैसी फिल्मों की राइटिंग टीम का हिस्सा रहीं जसमीत के रीन की बतौर निर्देशक पहली फीचर फिल्म है ‘डार्लिंग्स’। एक महिला निर्देशक के नाते उनकी कहानी का फोकस भी दोनों महिला किरदारों यानी मां, बेटी पर ही है। ये मां, बेटी चतुर और चंट महिलाएं हैं। घर में चोरी का सामान बेचने आने वाले नौजवान को बुद्धू बनाती रहती हैं। कहानी का तख्ता पलट भी ये दोनों ही करती हैं। बेटी को मारते रहने वाले दामाद को सबक सिखाने के प्लान में शामिल हुई मां अपने चाहने वालों को भी इसमें घसीट लाती है। शॉर्ट फिल्म के हिसाब से कहानी फिट है। फीचर फिल्म के हिसाब से ये अपने पत्ते खुल जाने के बाद बोर करने लगती है। जसमीत के रीन कोशिश पूरी करती हैं कि फिल्म पटरी पर बनी रहे, लेकिन रेल की पटरी तक आते आते पटकथा हिम्मत हार जाती है। जसमीत के निर्देशन में किसी तरह की ऐसी नवीनता भी नहीं है कि दर्शक टकटकी बांधकर एक ही बैठकी में पूरी फिल्म देख जाए।
तीन मर्दों के बीच मचलतीं दो जनानी
फिल्म ‘डार्लिंग्स’ के सारे कलाकारों ने इसमें लाजवाब अभिनय किया है। आलिया भट्ट ने फिर एक बार साबित किया कि अदाकारी में उनकी टक्कर की अभिनेत्रियां मौजूदा दौर के हिंदी सिनेमा में ज्यादा नहीं हैं। वह किरदार को जीने वाली कलाकार हैं। बदरुन्निसा जैसे आलिया की अदाकारी पाकर जी उठी है। और, आलिया की भी अपनी पहचान इसीलिए बनी है क्योंकि वह बीते 10 साल में फिल्म दर फिल्म अपने किरदारों के साथ प्रयोग करती आ रही हैं। लेकिन, किरदार पर रीझने वाली आलिया को कहानी के पेंच समझने अभी बाकी हैं। शेफाली शाह का असल अभिनय ओटीटी के जमाने में ही देखने को मिल रहा है। ‘दिल्ली क्राइम’ और ‘जलसा’ के बाद वह फिर एक बार अपनी काबिलियत के हिसाब से किरदार पाने में सफल रहीं। इसे निभाया भी उन्होंने पूरे शातिराना अंदाज में है। विजय वर्मा जरूर इस बार चूक गए हैं। आलिया का हीरो बनने के चक्कर में वह एक ऐसे किरदार के लिए हां कर बैठे, जिसके पास ज्यादा कुछ करने को है नहीं। उनसे बेहतर मौका फिल्म में रोशन मैथ्यू को मिला है। अलबत्ता, राजेश शर्मा के लिए कसाई का किरदार करना जरूर चुनौती भरा रहा होगा।
सवा दो घंटे की फिल्म की हैरानी
मुंबई में रची बसी कहानियां हिंदी सिनेमा में खूब देखी गई हैं। इस शहर से हिंदी सिनेमा के दर्शकों को लगाव भी काफी रहा है। लेकिन ठेठ भायखला या धारावी वाली बोली हिंदी सिनेमा के लिए ‘गली ब्वॉय’ जैसी गिनती की फिल्मों में ही दिखी है। भूमंडलीकरण के दौर से आगे निकल आई दुनिया में कोई कहानी इतने सीमित इलाके में ही घूमती रहे, तो अपना असर छोड़ नहीं पाती है। फिल्म की बोली, इसके संवाद, इसकी पटकथा ही इसकी कमजोर कड़ियां हैं। अनिल मेहता की सिनेमैटोग्राफी फिल्म के कलेवर के हिसाब से दुरुस्त है लेकिन नितिन बैद को इसकी लंबाई डिजिटल फिल्म के हिसाब से 90 मिनट के आसपास ही कर देनी चाहिए थी। फिल्म का संगीत गुलजार, विशाल भारद्वाज और मेलो डी ने मिलकर बनाया है और तीनों का तिलिस्म पूरी तरह बेअसर है। आलिया के नाम पर फिल्म देखनी हो तो देख सकते हैं, लेकिन ‘डार्लिंग्स’ के साथ बैठकर इसे देखने लायक आनंद इसमें है नहीं।