सरकारी नौकरी मध्य प्रदेश नगरवासियों के क्या हित के लिये….?
पद्मश्री विजय दत्त श्रीधर जी के अनुसार यह संविधान की अवहेलना का सवाल नहीं है. इससे राष्ट्रीय एकता में भी बाधा नहीं, बल्कि अशांति और द्वेष से मुक्ति मिलेगी. अखिल भारतीय सेवाओं और लोक सेवा आयोगों के माध्यम से भरे जाने वाले राजपत्रित अधिकारियों की भरती यथावत जारी रहेगा.
मध्यप्रदेश की सरकारी नौकरियाँ राज्य के बच्चों के लिए सुनिश्चित करने की मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की घोषणा की प्रतिक्रिया में सम्मतियों की बौछार हो रही है. एक तरफ स्वागत का स्वर है, तो दूसरी तरफ इसे चुनावी पैतरा समझा जा रहा है. तीसरा पक्ष विधिक मत का है जो मानता है कि संविधान के अनुसार स्थानीय निवासियों को ही नौकरी देने के लिए ‘जनरल प्रावीजन’ नहीं किया जा सकता. यह उदाहरण दिया जा रहा है कि सन 1998 में दिग्विजय सरकार ने मध्यप्रदेश से दसवीं और बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने अथवा लगातार पाँच वर्ष तक राज्य में शिक्षा ग्रहण करने की नीति लागू की थी. इसे हाईकोर्ट में चुनौती दी गई थी, जहाँ नीति को निरस्त कर दिया गया. सुप्रीम कोर्ट का भी यही मत रहा. संप्रति मुख्यमंत्री चौहान न केवल अपना संकल्प दोहरा रहे हैं बल्कि एक कदम आगे बढ़ाते हुए राष्ट्रीय भर्ती एजेंसी (NRA) के माध्यम से होने वाली पात्रता परीक्षा के प्राप्तांकों के आधार पर प्रावीण्य सूची तैयार कर मूल निवासियों को नौकरी देने की घोषणा कर चुके हैं. उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि राजपत्रित और तकनीकी पदों के अलावा राज्य की सभी नौकरियाँ मूल निवासियों को मिलेंगी.
बौद्धिक कवायद से परे व्यावहारिक दृष्टिकोण से रोजगार की परिस्थितियों पर विचार करना आवश्यक है. कुछ पुराने प्रसंगों का संज्ञान लेना समीचीन होगा। उन्नीसवीं सदी के आखिरी दशक में रीवा से प्रकाशित होने वाले जन सरोकारों के पाक्षिक पत्र ‘भारत भ्राता’ में 24 मई 1895 की यह टिप्पणी ध्यातव्य है – ‘‘जिसको पांच रुपए मासिक भी नहीं देना चाहिए, क्यों राजस्थानों से राजे-महाराजे अथवा राज्य के संरक्षक पचास रुपए दिला देते हैं. क्या देशी राजस्थान गवर्नमेंट का मुंह देख कर 5 रुपए की जगह 50 रुपए फेंकते हैं. क्या वे गवर्नमेंट के वाक्य को वेदों का वाक्य मानते हैं. गवर्नमेंट यदि किसी पुरुष को योग्य लिखकर भेज देती है तो उसे सच्चा मानकर स्वीकार कर लेते हैं. गवर्नमेंट से प्रार्थना करने के अतिरिक्त स्वयं ही वे परदेशियों को बुलाते हैं और उन्हें राज्य सेवा देते हैं. देशी राजे महाराजाओं को अपने अधीनस्थ प्रजा की दीन दशा पर अवश्य ध्यान देना चाहिए और इनका स्वत्व देखना चाहिए और यदि वे राज्य सेवा के किसी पद के योग्य योग्यता रखते हों तो योग्यतानुसार उन्हें भली भाँति राज्य कार्य लेना निसंदेह आवश्यक है. राज्य की प्रजा की शिक्षा अनिवार्य कर दी जाय और उन्हें राजनैतिक दशा, सैनिक आदि प्रत्येक विषय की शिक्षा दी जाये.
सन 1934 में भोपाल रियासत में एक बड़ा जन आन्दोलन ऐसे ही मुद्दे पर हुआ था. इसकी अगुआई शाकिर अली खां कर रहे थे. उनका अखबार ‘सुबह ए वतन’ इस ‘मुल्की-गैर मुल्की’ आन्दोलन का प्रवक्ता था. अखबार के मत्थे पर छापा जाता था – ‘भोपाल, भोपालियों के लिए’. उन दिनों भोपाल की नवाबी हुकूमत ने तमाम ऊँचे ओहदों पर बाहर से बुलाए गए लोग तैनात कर रखे थे. केवल छोटे-मोटे कामों के लिए भोपालियों को रखा जाता था.
ऐसे आन्दोलन या असंतोष या माँग या अपेक्षा को इसी दृष्टि से देखने की जरूरत है कि राज्य की जनता के खजाने से उपजने वाले नौकरी के अवसरों पर पहला हक स्थानीय (मूल) निवासियों का है. यह संविधान के उल्लंघन या राष्ट्रीय एकता जैसा सवाल नहीं है. जो जनता भाँति-भाँति के कर चुका कर राज्य का खजाना भरती है. उसी से राज काज चलता है और वेतन-भत्ते बाँटे जाते हैं. वही जनता वोट देकर जन प्रतिनिधि चुनती है और सरकार बनवाती है. उस सरकार का कर्तव्य और जिम्मेदारी है कि जनता की रोजी-रोजगार की गारंटी करे. ‘हर हाथ को काम’ चुनावी नारा नहीं है. यह किसी भी शासन-प्रशासन के लिए प्रतिज्ञा है, संकल्प है.
तर्क प्रिय ज्ञानी जन सवाल उठा सकते हैं कि रियासतें तो खुद-मुख्तार थीं. अब देश एक है, संविधान एक है. सभी राज्य उसी के अंतर्गत हैं. बिलकुल ठीक. परन्तु पिछले वर्षों में ऐसी कई घटनाएँ सामने आई हैं, जिनमें स्थानीय (मूल) निवासियों की भावनाएँ हिंसक रूप तक में सामने आई हैं. राजनैतिक मंसूबों ने उनको हवा दी. संविधान के पैरोकार कभी उसके प्रतिरोध में खड़े नहीं हो पाए.
मुंबई में उत्तर प्रदेशी और बिहारियों के विरुद्ध हिंसक बरताव बार-बार होता रहता है. असम से बाहरियों को निकाल बाहर करने का संघर्ष हुआ. गुजरात से बाहर वालों को भागना पड़ा. दो दशक पहले रेलवे बोर्ड की परीक्षाओं के लिए दक्षिण-पश्चिमी राज्यों में पहुँचे बिहारियों के साथ मारपीट हुई. यह संविधान या देश को चुनौती देने वाले मुद्दे नहीं थे. इनके पीछे रोजगार पाने की जद्दोजहद रही. आजीविका, भरण-पोषण का सवाल. राज्यों के मूल निवासियों को लगता है कि हमारे राज्य के संसाधनों, हमारे राज्य के अवसरों पर हमारा हक है. उनसे हमारी समस्याओं का समाधान हो. हमारे संकटों का निवारण हो. हमारी आशाएँ-अपेक्षाएँ-आवश्यकताएँ पूरी हों. बेरोजगारों की बढ़ती संख्या और अवसरों की सीमित उपलब्धता नौजवानों में तनाव और आक्रोश का कारण बनती है. इस चुनौती का समाधान आदर्शों और सपनों की खेती से नहीं हो सकता. व्यावहारिक हल तलाशना होगा.
जहाँ तक अखिल भारतीय सेवाओं का सवाल है और राज्यों में भी जो राजपत्रित पद लोक सेवा आयोगों के माध्यम से भरे जाते हैं, उनकी प्रक्रिया और स्वरूप यथावत रहने वाला है. परन्तु तृतीय और चतुर्थ श्रेणी वाले पदों की भरती में अखिल भारतीय दायरा न तो तर्क संगत है, न ही न्याय संगत है. प्राथमिक, माध्यमिक शालाओं के शिक्षक, दफ्तरों के क्लर्क, पटवारी, नाकेदार, ड्रायवर, चपरासी, चौकीदार और ऐसे ही अन्य तमाम पदों की भरती के लिए बाहरी उम्मीदवारों का सदाव्रत नहीं खुलना चाहिए. यह ध्यान रखना चाहिए कि संविधान केवल मध्यप्रदेश के लिए नहीं बनाया गया है. पूरे देश में लागू होता है. उत्तरप्रदेश में पाँच वर्ष से निरन्तर और स्थायी रूप से निवास का नियम है. उत्तराखण्ड में दसवीं बोर्ड और बिहार में बारहवीं बोर्ड का प्रावधान है. गुजरात में गुजराती और महाराष्ट्र में मराठी भाषा की अनिवार्यता है. छत्तीसगढ़ में मूल निवासी की शर्त लागू है. जम्मू-कश्मीर में बाहर का कोई परिन्दा पर मार ही नहीं सकता.
अच्छा होगा कि नया नियम-कानून जो भी बने, भारत के सभी राज्यों के प्रावधानों का तुलनात्मक अध्ययन करके बने. पूर्व मुख्य सचिव कृपाशंकर शर्मा जैसे सुयोग्य अधिकारी की अध्यक्षता में साधिकार समिति का गठन कर प्रारूप तैयार करवाया जाए. प्रावधान स्पष्ट हों. दुरूह नहीं. सुलझे हुए हों. विरोधाभासी नहीं. चोर दरवाजों की गुंजाइश न रहे. वर्तमान में भरती के नियम और प्रक्रिया बार-बार अदालतों में गच्चा खाती है. ऐसा होने की संभावना समाप्त करना जरूरी है.
स्थानीय प्रकृति के पदों की भर्ती के लिए कलेक्टर की अध्यक्षता में जिला भरती बोर्ड बने. इनमें जिला पंचायत के मुख्य कार्यपालन अधिकारी और पुलिस अधीक्षक सदस्य हों. चौथा सदस्य उस विभाग का जिला अधिकारी हो, जिसके लिए भरती हो रही है. कोई अशासकीय सदस्य नहीं रहे. जिला रोजगार अधिकारी समन्वयक का दायित्व निभाए. परीक्षा और साक्षात्कार की वीडियो रिकार्डिंग कराई जाए.
कुछ समय पहले शिक्षकों का सक्षमता के परीक्षण का उदाहरण सामने आया था. कई शिक्षक उन किताबों का सही पाठ भी नहीं कर पाए थे जिनको पढ़ाने के लिए वेतन ले रहे थे. यह तो मध्यप्रदेश की भावी पीढ़ियों के भविष्य की हत्या ही हुई. भर्तियों के लिए यह नियम भी लागू किया जाए कि एक साल का कार्यकाल पूरा होने पर योग्यता और सक्षमता की बाकायदा परीक्षा ली जाएगी. जो इस परीक्षा में सफल न हों, उनकी सेवाएँ समाप्त कर दी जाएँ. सरकारी सेवाएँ धर्मादा अथवा अनाथालय का पर्याय नहीं बनना चाहिए. शासकीय, स्वायत्त और अशासकीय भी, सेवाओं के स्तरोन्नयन के लिए मध्यप्रदेश में शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने की बहुत जरूरत है. प्राथमिक विद्यालय से लेकर विश्व विद्यालयों तक इसके लिए कसावट होनी चाहिए. इसकी शुरुआत CBSE पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकें लागू करके हो सकती हैं. आरक्षित वर्गों की दक्षता बढ़ाने के लिए कोचिंग का ढाँचा मजबूत किया जाए.