क्या मध्य प्रदेश ने कोरोना संक्रमण को कभी गंभीरता से लिया ही नहीं
कोरोना वायरस के संक्रमण की वजह से मध्य प्रदेश में 15 मई तक सम्पूर्ण लॉकडाउन लगा दिया गया है. लॉकडाउन की घोषणा करते हुए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि प्रदेश में अभी 18% की दर से लोग संक्रमित हो रहे हैं. इस दर के साथ राज्य को खुला नहीं रख सकते हैं. उन्होंने जनता से अपील की कि वे राज्य के हित में अपने पारिवारिक व शादी के कार्यक्रमों को कुछ दिनों के लिए रोक दें. मुख्यमंत्री के इस फैसले के बाद कई तरह के सवाल उठने शुरू हो गये हैं. लोग सवाल कर रहे हैं कि मुख्यमंत्री चुनावों से फुर्सत में हो गये तब जाकर यह फैसला किया. गत वर्ष भी राजनैतिक कारणों की वजह से कोरोना के खिलाफ लडाई में देरी से फैसले लिए गये.
वरिष्ठ पत्रकार राकेश वर्मा आरोप लगते हैं कि मध्य प्रदेश सरकार ने कोरोना वायरस को कभी गंभीरता से लिया ही नहीं. सब अपनी मनमर्जी करते रहे और कोरोना विकराल रूप धारण करता रहा. हर कोई लापरवाही करता रहा और संक्रमित होते रहे. वो आरोप लगते हैं कि कोरोना की दोनों लहरों में सरकार ने तमाम ऐसे फैसले लिए जिससे कोरोना को अपना तांडव मचाने में मदद मिली. हाँ सरकार ने कुछ फैसले जरुर लिए लेकिन संक्रमण के फलने के बाद.
उनके यह आरोप कहीं न कहीं सही भी हैं. जब पिछले साल मार्च में कोरोना भारत में आया ही था. तब मध्य प्रदेश में इससे बचाव की जगह राजनैतिक उठापटक चल रही थी. भारतीय जनता पार्टी सरकार बनाने में लगी हुई थी. एक चुनी हुई सरकार को ताश के पत्तों की तरह ढहा दिया गया था. राज्य को जब उसके स्वास्थ्य मंत्री की सबसे ज्यादा जरुरत थी, तब वह बंगलौर के होटल में छुट्टियाँ मना रहे थे. कमलनाथ के इस्तीफा देने तक कोरोना देश में विकराल रूप ले चुका था, लेकिन सरकार कोई भी सख्त फैसले नहीं ले रही थी. शिवराज सिंह चौहान के शपथ ग्रहण का इंतजार किया जा रहा था. 23 मार्च को शिवराज सिंह के शपथ लेने के बाद ही प्रधानमंत्री ने देशभर में सख्त लॉकडाउन की घोषणा कर दी.
चूंकि 27 विधायकों ने अपनी सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था. जिसके बाद उपचुनावों का होना तय था. कुछ समय तक राज्य सरकार ने कोरोना से लड़ने में सक्रियता दिखाई. लेकिन उपचुनाव आते-आते वो सरकार बचाने के लिए रैलियां, रोड शो करने लगी. हजारों की संख्या में भीड़ जुटने लगी. देखकर लगता ही नहीं था कि यह कोरोना काल चल रहा है. जिसमें भीड़ इकट्ठा करना वायरस को खाद-पानी देना होता है. नेतागण इन रैलियों में खुद बिना मास्क के आते थे तो उन रैलियों में आने वाले उनके समर्थक से क्या ही उम्मीद की जा सकती थी?
28 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव खत्म होते-होते तय हो गया था कि कुछ समय बाद ही दमोह में भी उपचुनाव कराया जायेगा. जब यहाँ चुनाव का वक्त आया तब कोरोना और भी ताकतवर होकर लौट आया और तबाही फैलानी शुरू कर दी. सरकार का फिर वही रवैया था. पहले चुनाव फिर और कुछ. राजनैतिक दल हजारों की भीड़ जुटाकर कोरोना फैलाने में लगे हुए थे. सरकार के द्वारा कई शहरों में लॉकडाउन लगाया गया लेकिन दमोह को इससे अलग रखा गया. क्योंकि सरकार को वहां चुनाव लड़ना था.
सरकार को जब कोरोना से लड़ने की तैयारी करनी चाहिए थी तब वो चुनावों की तैयारियों में जुटी हुई थी. सरकार को जब कोरोना के खिलाफ रणनीति बनानी थी, तब वह चुनाव जीतने की रणनीति बना रही थी. राज्य में कभी ऐसा माहौल बना ही नहीं जब लगा हो कि कोरोना नाम का कोई वायरस भी है. हर पहलू पर जबरदस्त लापरवाही की गयीं. और आज वक्त यह आ गया है कि हर रोज हजारों की संख्या में संक्रमित हो रहे हैं और सैकड़ों की संख्या में मृतक. सरकार मृतकों और संक्रमितों की सही सख्यां बताने में कतरा रही है. लेकिन वो ऐसा क्यों कर रही है, इसका जवाब किसी के पास नहीं है.