1655 साल पुराना फांसी वाला पेड़, जिसपर 21 आदिवासियों को लगाई गई थी फांसी
मण्डला: देश को आजाद हुए 74 साल हो गए. आज हम सब लोग अंग्रेजों की बेड़ियों से बाहर निकलकर खुली हवा में सांस ले रहे हैं. हमें यह आजादी यूं ही नहीं मिली है. इस आजादी के लिए हमे बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है. इस स्वतंत्रता के लिए लाखों सेनानियों से लेकर कई लोगों ने अपनी जान कुर्बान की है.
देश को स्वतंत्रता दिलाने के संघर्ष में आम लोगों के साथ आदिवासियों का भी बड़ा योगदान रहा है. आदिवासी बहुल जिला मण्डला के सैकड़ों आदिवासियों ने देश की आजादी के लिए शहादत दी थी. इसी शहादत का गवाह बना था फांसी वाला पेड़, जो अंग्रेजों के जुल्मों और आजादी के परवानों के किस्सों की याद दिलाता है. सैंकड़ों सालों से खड़ा बरगद का पेड़ सन 1857 की क्रांति से लेकर अंग्रेजों के जुल्मों की यादों को संजोए हुए हैं.
21 आदिवासियों को लटकाया था इस बरगद के पेड़ से
बरसों पहले आदिवासियों ने अंग्रेजों से आजादी के लिए आवाज उठाई थी. उस वक्त शहीद उमराव सिंह समेत 21 आदिवासियों को लटकाकर फांसी दे दी गई थी, ये उस जमाने की बात है जब मण्डला क्षेत्र में अंग्रेज शासक कर्नल वाडिंग्टन की तैनाती थी. इतिहासकार नरेश ज्योतिषी बताते हैं कि सन 1857 में मलथु चमार के आंगन में लगे इसी बरगद के पेड़ पर लटकाकर आदिवासियों की आवाज को खामोश किया गया था. वे बताते हैं कि केवल ये 21 आदिवासी ही नहीं बल्कि जिले के सैकड़ों आदिवासियों ने आजादी के लिए अपनी शहादत दी थी.
आजादी के दीवानों के बलिदान का गवाह है यह पेड़
मण्डला जिले के जिला पुरातत्व अधिकारी हेमन्तिका शुक्ला बताती हैं कि इस पेड़ पर आज भी फांसी के फंदे के काम आने वाले लोहे के मोटे शिकंज कसे हुए हैं. 1857 की क्रांति के दौरान अंग्रेजों ने बगावत को रोकने के लिए लोगों को इसी पेड़ से फांसी पर लटकाया था. मंडला के गोंड राजाओं और स्वतंत्रता संग्राम के जानकार बताते हैं की यहां अंग्रेजों का बनाया हुआ जेल भी है, जो कि स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान का गवाह है.