क्या राज्य में कोरोना से ज्यादा उपचुनावों को मिला है महत्व
मध्य प्रदेश में 2018 में 15 वर्षों के बाद सत्ता परिवर्तन हुआ था. 15 सालों से सरकार में बैठी भारतीय जनता पार्टी को सत्ताविहीन होना पड़ा था. दिसम्बर 2018 में कमलनाथ ने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली. जिसके कुछ महीनों बाद ही लोकसभा चुनाव हो गए.
फिर आया साल 2020. मार्च में कोरोना संक्रमण के बढ़ते ग्राफ साथ-साथ मध्य प्रदेश में चुनावी तामपान भी हर रोज बढ़ रहा था. ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा दे दिया था. वो भारतीय जनता पार्टी के ‘भाईसाहब’ बन बैठे. वो अपने साथ-साथ उस वक्त ही 22 कांग्रेसी विधायकों को भी बीजेपी में ले गए. कमलनाथ सरकार अल्पमत में आई और गिर गई. शिवराज सिंह ने फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली. चौथी बार शिवराज सरकार बनते ही प्रदेश में उपचुनावों का दौर शुरू हो गया. शुरुआत में सिर्फ 22 विधायक ही बीजेपी में शामिल हुए. लेकिन बाद में इनकी संख्या बढ़कर 27 हो गई.
उस वक्त कोरोना भी अपने चरम पर था. सरकार के सामने दो चुनौतियां थीं. पहली कोरोना से निबटना और दूसरी अपने मंत्रीमंडल में शामिल मंत्रियों को विधायक बनाना. जोकि सिर्फ चुनावों से ही हो सकता था. जनता कोरोना से संक्रमित होती रही और सरकार चुनावी तैयारियों में लगी रही. सरकार को जो वक्त कोरोना से लड़ने में लगाना था, वो वह चुनावों की तैयारियों में लगा रही थी. जिसका खामियाजा कोरोना की इस दूसरी लहर में भुगतना पड़ रहा है.
सितम्बर महीने में चुनाव आयोग ने घोषणा कर दी कि प्रदेश की 28 विधानसभा सीटों पर नवंबर में चुनाव होंगे. जिसके बाद सभी राजनैतिक दल सब कुछ भुलाकर चुनाव में कूद पड़े. रलियों, रोड शो का दौर शुरू हो गया. जिस तरह से इन राजनैतिक कार्यक्रमों में भीड़ जुटती थी. ऐसा लगता ही नहीं था कि इस वक्त कोरोना महामारी का दौर भी है. खुद मुख्यमंत्री लोगों से ज्यादा से ज्यादा संख्या में रैलियों में आने की अपील करते.